मुर्शिदाबाद में हिंसा का सच: बांग्लादेश की सक्रियता और बंगाल में मुस्लिम राजनीति की विफलता,वामपंथी और तृणमूल कांग्रेस की दशकों पुरानी राजनीति पर आलोचनात्मक दृष्टि
मुर्शिदाबाद और माल्दा जैसे जिलों में हुई हालिया सांप्रदायिक हिंसा ने एक बार फिर पश्चिम बंगाल की राजनीतिक और सामाजिक संरचना की खतरनाक खामियों को उजागर कर दिया है। जहां एक ओर सीमावर्ती क्षेत्रों में बांग्लादेशी प्रभाव और कट्टरपंथ की सक्रियता चिंता का विषय है, वहीं दूसरी ओर, इन क्षेत्रों में वामपंथी और तृणमूल कांग्रेस (TMC) की वर्षों की अल्पसंख्यक-केंद्रित वोटबैंक राजनीति ने ऐसी घटनाओं की ज़मीन तैयार की है।
1. मुर्शिदाबाद की सामाजिक संरचना और बढ़ती संवेदनशीलता
मुर्शिदाबाद न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह धार्मिक दृष्टि से भी एक अत्यंत संवेदनशील जिला है। यहाँ मुस्लिम जनसंख्या लगभग 66% है और यह जनसंख्या विभिन्न सामाजिक और धार्मिक धाराओं में विभाजित है। इस सांस्कृतिक जटिलता को समझने में और इसके उचित प्रबंधन में विफल रहने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी राज्य की सरकारों की रही है — विशेषकर वाम मोर्चा और तृणमूल कांग्रेस की।
2. वामपंथी युग: राजनीतिक संरक्षण बनाम सामाजिक सशक्तिकरण
वामपंथी दलों ने अपने दीर्घकालीन शासन (1977–2011) के दौरान अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति एकतरफा सहानुभूति का प्रदर्शन किया, लेकिन यह सहानुभूति केवल वोटबैंक बनाए रखने तक सीमित रही। मुस्लिम समाज को शिक्षा, रोजगार और सामाजिक सशक्तिकरण से दूर रखा गया। इसके स्थान पर मौलवियों, इमामों और धार्मिक संस्थानों को वित्तीय सहायता देकर एक ‘तुष्टीकरण संस्कृति’ का निर्माण किया गया। इससे न केवल समुदाय की आत्मनिर्भरता घटी, बल्कि स्थानीय धार्मिक नेताओं और मदरसों के माध्यम से बाहरी कट्टरपंथी प्रभाव भी गहराने लगा।
3. तृणमूल कांग्रेस की राजनीति: तुष्टीकरण की पराकाष्ठा
2011 में सत्ता में आने के बाद TMC ने वामपंथियों की उसी तुष्टीकरण नीति को एक नए और आक्रामक रूप में आगे बढ़ाया। मुस्लिम समुदाय को ‘संपूर्ण समर्थन’ देने की खुली घोषणाओं, इमाम भत्तों, उर्दू को विशेष दर्जा देने जैसी नीतियों ने एकतरफा पक्षधरता को दर्शाया।
टीएमसी की राजनीति में अल्पसंख्यकों की असहमति को भी कुचला गया। मुर्शिदाबाद, माल्दा, बीरभूम और उत्तर दिनाजपुर जैसे जिलों में टीएमसी ने अपने क्षेत्रीय नेताओं के माध्यम से स्थानीय मदरसों, जमात-प्रभावित संस्थाओं और धार्मिक नेताओं को अपने साथ जोड़ लिया। इससे क्षेत्र में एक वैकल्पिक सत्ता-ढांचा बन गया, जो संवैधानिक संस्थाओं और प्रशासनिक तंत्र से ऊपर काम करता रहा।
4. सीमावर्ती राजनीति और बांग्लादेशी प्रभाव
मुर्शिदाबाद और माल्दा बांग्लादेश की सीमा से सटे होने के कारण पहले से ही संवेदनशील हैं। लंबे समय से अवैध घुसपैठ, तस्करी, और सीमा पार कट्टरपंथी संगठनों की सक्रियता यहां चुनौती रही है।
टीएमसी शासन में बांग्लादेश से आने वाले तत्वों पर नियंत्रण की बजाय राजनीतिक संरक्षण अधिक मिला। खुफिया रिपोर्टों में बार-बार यह बताया गया कि कट्टरपंथी संगठन जैसे जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (JMB) इन जिलों में अपने नेटवर्क को मज़बूत कर चुके हैं, और स्थानीय स्तर पर इनकी फंडिंग और लॉजिस्टिक सपोर्ट बिना किसी राजनीतिक छत्रछाया के संभव नहीं।
5. शिक्षा और सामाजिक पिछड़ापन: जानबूझकर की गई उपेक्षा
वामपंथ और TMC दोनों ने मुस्लिम समाज की शिक्षा पर वास्तविक निवेश नहीं किया। मदरसे और धार्मिक शिक्षण संस्थाएं ही एकमात्र विकल्प बनती गईं। तृणमूल कांग्रेस ने मदरसों के बजट को तो बढ़ाया, लेकिन मुख्यधारा की शिक्षा, तकनीकी संस्थान और व्यावसायिक प्रशिक्षण की ओर ध्यान नहीं दिया।
यह उपेक्षा असहमति की संस्कृति को समाप्त कर एकरूप धार्मिक पहचान को मजबूत करने लगी — और यहीं से कट्टरपंथ को पनपने का अवसर मिला।
6. राजनीतिक मौन और प्रशासनिक लाचारी
मुर्शिदाबाद में जब हिंसा भड़की, तब भी राज्य सरकार का पहला उत्तर शांतिपूर्ण नहीं था, बल्कि मौन था। मुख्यमंत्री या वरिष्ठ मंत्रियों की कोई त्वरित प्रतिक्रिया नहीं आई। उलटे, स्थानीय टीएमसी नेताओं ने हिंसा को नकारने या “प्राकृतिक झगड़ा” कहने की कोशिश की।
प्रशासन भी पूरी तरह असहाय दिखा — पुलिस बलों की तैनाती में देरी, उपद्रवियों की गिरफ्तारी में ढिलाई और पीड़ितों की सुध लेने में कोताही — यह सभी एक स्पष्ट संदेश देते हैं कि राज्य मशीनरी राजनीतिक आदेशों की दासता में थी।
7. वामपंथी और टीएमसी द्वारा खड़ी की गई ‘प्रॉक्सी आइडेंटिटी’
इस घटनाक्रम में एक और चिंताजनक बात यह थी कि वामपंथ और TMC दोनों ने मुस्लिम समुदाय की ‘धार्मिक पहचान’ को राजनीतिक पहचान में बदलने का कार्य किया। जब एक वर्ग को उसके मज़हब के आधार पर लगातार लाभ या संरक्षण मिले, तो सामाजिक संतुलन और संवैधानिक समानता प्रभावित होती है।
यही कारण है कि धार्मिक प्रतीकों, जलूसों, और त्यौहारों को अब सत्ता-प्रदर्शन का साधन बनाया जाने लगा है। मुर्शिदाबाद में जलूस के दौरान भड़की हिंसा इसी मनोवृति की परिणति है — धार्मिक उत्सव, अब धार्मिक शक्ति-प्रदर्शन बन चुके हैं।
8. समाधान: राजनीति से ऊपर उठने की आवश्यकता
आज आवश्यकता है कि पश्चिम बंगाल, विशेषकर मुर्शिदाबाद और माल्दा जैसे जिलों में:
• सीमावर्ती इलाकों में कठोर प्रशासनिक नियंत्रण हो।
• धार्मिक संस्थानों की पारदर्शिता और निगरानी की जाए।
• कट्टरपंथ और बाहरी फंडिंग की जांच हो।
• मुस्लिम युवाओं को धर्म के बजाय शिक्षा और तकनीकी दक्षता के माध्यम से सशक्त किया जाए।
• एक ऐसी सामाजिक नीति बनाई जाए जो समुदायों को जोड़ने का कार्य करे — न कि बाँटने का।
मुर्शिदाबाद की हिंसा पश्चिम बंगाल की उस राजनीतिक विफलता का परिणाम है, जो दशकों से केवल प्रतीकात्मक अल्पसंख्यक नीतियों, तुष्टीकरण और वोटबैंक के गणित पर आधारित रही है। वामपंथियों ने शुरू किया, तृणमूल ने उसे और उग्र रूप दिया — और परिणामस्वरूप आज सीमांत समाज हिंसा, असुरक्षा और कट्टरता के बीच जीने को विवश है।
यह समय है कि बंगाल की राजनीति अपनी ऐतिहासिक भूलों को स्वीकार करे और एक ऐसा रास्ता चुने जो न्याय, शिक्षा, समानता और सांप्रदायिक सौहार्द की ओर ले जाए — न कि तुष्टीकरण की अंधी गली में..…लेख–
शीराज़ क़ुरैशी अधिवक्ता
राष्ट्रीय संयोजक, भारत फर्स्ट
लेखक परिचय:
शीराज़ क़ुरैशी – अधिवक्ता एवं राष्ट्रवादी विचारक
शीराज़ क़ुरैशी एक प्रख्यात अधिवक्ता हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करते हैं और देश के प्रमुख संवैधानिक एवं सामाजिक विषयों पर सक्रिय भूमिका निभाते हैं। वे न केवल एक कानूनविद् हैं, बल्कि एक सशक्त राष्ट्रवादी चिंतक, वक्ता और शोधकर्ता भी हैं।
शीराज़ क़ुरैशी को भारत के पारंपरिक एवं समकालीन विधिक ढाँचे पर गहन पकड़ हासिल है। वे “भारत फर्स्ट” जैसे राष्ट्रवादी संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार के मार्गदर्शन में कार्य करता है। इस मंच के माध्यम से वे सामाजिक समरसता, कानूनी जागरूकता और राष्ट्र निर्माण से जुड़े विषयों पर निरंतर संवाद करते हैं।
उनकी गिनती प्रमुख टीवी चैनलों के चर्चित वक्ताओं में होती है, जहाँ वे विधि, संविधान, सामाजिक न्याय, वक़्फ़ संपत्ति, और अल्पसंख्यक अधिकारों जैसे विषयों पर पक्ष-विपक्ष में संतुलित और सुसंगत दृष्टिकोण रखते हैं।
शैक्षणिक योगदान:
शीराज़ क़ुरैशी ने अतिथि विद्वान (Guest Faculty) के रूप में जीवाजी विश्वविद्यालय (ग्वालियर) और महात्मा गांधी विधि महाविद्यालय में विधिशास्त्र के छात्रों को शिक्षित किया है। वे युवाओं में विधिक सोच विकसित करने, मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूकता फैलाने हेतु समर्पित रहे हैं।
शोध और लेखन:
उन्हें राष्ट्रवादी लेखन, कानूनी इतिहास और समाजविज्ञान आधारित शोध में विशेष रुचि है। वे वक़्फ़ अधिनियम, अल्पसंख्यक अधिकार, और सामाजिक न्याय पर आधारित कई शोध लेखों, भाषणों और संगोष्ठियों में भाग ले चुके हैं।