कार्यपालिका की मनमानियों के नित नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं। अप्रिय घटनाओं के मूर्त रूप लेने के बाद प्रशासन जागता है। कार्यवाही का ढोंग शुरू होता है। छोटे कर्मचारियों पर पूरी घटना का दायित्व डालकर मोटी पगार और सुविधायें लेने वाले वातानुकूलित अधिकारी बच निकलते हैं। आखिर उच्चाधिकारियों को ही तो जांच, कर्तव्यपालन और अनुशासन का मूल्यांकन करने के लिए नियुक्त किया जाता है। ‘सरकारी अधिकारी, भाई-भाई’ और ‘अधिकारी एकता, जिन्दाबाद’ जैसे नारे बुलंद होने लगते हैं। अधिकारियों के स्वार्थी संगठनों की बैठकों का दौर चलने लगता है। अधीनस्थ कर्मचारियों के संगठनों को भी सक्रिय कर दिया जाता है। दबाव का माहौल बनाकर प्रस्तुत की जाने वाली आख्या में मनमाने दस्तावेजों की भरमार करके वरिष्ठों को क्लीन चिट दे दी जाती है। सारा का सारा दोष धरातल पर काम करने वाले न्यूनतम वेतनधारियों, संविदाकर्मियों या फिर ठेके पर लगाये गये कर्मचारियों पर मढ कर उनके विरुद्ध कार्यवाही करके औपचारिकताओं को पूरा कर लिया जाता है। जैसलमेर की घटना में 21 लोगों की दर्दनाक मौत कोई नई घटना नहीं हैं। विगत तीन वर्ष में इस तरह की आधा दर्जन से अधिक घटनाओं में अनगिनत लोगों की असमय मौत हो चुकी है। संचालित हो रही बसों की फिटनेस, परमिट तथा अन्य दस्तावेजों की जांच करने वालों की लापरवाहियां ही इस तरह की घटनाओं के लिए उत्तरदायी होतीं हैं। धरातल पर काम करने वाले कर्मचारी अपने वरिष्ठ अधिकारियों के इशारे पर ही अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं। उत्तर प्रदेश इसका एक बडा उदाहरण है जहां पर वरिष्ठ अधिकारियों के दबाव में धरातल पर काम करने वाला तंत्र अपराधियों पर शिकंजा कर रहा है। पहले भी तंत्र यही था परन्तु तब उच्चाधिकारियों की नीतियां और रीतियों ने कानून की परिभाषायें बदलकर निजी स्वार्थ की पूर्ति का बडा लक्ष्य निर्धारित किया था। परिणामस्वरूप अपराधियों के हौसले इतने बुलंद थे कि सरकारी मुलाजिमों को वे अपना गुलाम मानकर कार्य करवाते थे। जैसलमेर की घटना के परिपेक्ष में देखें तो हालात बद से बद्तर होते जा रहे हैं। परिवहन विभाग, यातायात पुलिस विभाग, टोल नाका जैसे स्थानों पर अनियमितताओं की भरमार है। वातानुकूलित बसों की भीड निरंतर बढती जा रही है। महानगरों से स्थाई परमिटधारी बसों से कई गुना ज्यादा निजी बसों का मनमाना संचालित हो रहा है। इन बसों के निर्माण से लेकर संचालन तक ने ‘दाल में कुछ काला है’ की कहावत के स्थान पर ‘दाल ही काली है’ को स्थापित कर दिया है। कभी बसों के ब्रेक फेल हो जाते हैं तो कभी ड्राइवर की लापरवाही सामने आती है। कभी बिना परमिट का संचालन ठहाके लगाता है तो कभी नियम विरुद्ध बसों का निर्माण अट्टहास करता है। कहीं एकल मार्ग में गलत दिशा में आने वाली बसें मौत का दावानल बन जातीं है तो कहीं मनमाना परिवहन सांसों को बंद करने का कारण बनता है। कहीं आग का गोला बनी संदूक बस में यात्रियों की हृदय विदारक मृत्यु होती है तो कहीं जरजर बसें लोगों को निरंतर मौत बांट रहीं हैं। यातायात व्यवस्था को कानून के अनुरूप बनाये रखने के नाम पर ईमानदार करदाताओं की खून-पसीने की कमाई से मोटी पगार पाने वाले अतिरिक्त लाभ कमाने के लिए हमेशा अवसर तलाशते देखे जा सकते हैं। हकीकत हो यह है कि एक ही मार्ग पर एक ही तरह के चलने वाली बसों को ‘हफ्ता’ के आधार पर मनमानी करने की खुली छूट मिल रही है। लम्बी दूरी की बसों से वसूली हेतु विशेष कर्मचारी नियुक्त किये जाते हैं जो अपने गैर सरकारी साथियों के साथ मिलकर ‘हफ्ता’ वसूली में का काम पूरी तत्परता से देखते हैं। राज्यों की सीमा पर मौजूद वसूली करने वालों का खासा आतंक देखने को मिलता है जो सीधे वरिष्ठ अधिकारियों के संपर्क में बताये जाते है। इन बसों के संचालन को लेकर अनेक प्रकरण सामने आये परन्तु विभागीय सहयोग के कारण उठाये गये मुद्दों को वैधानिक बना दिया जाता रहा है। बिना परमिट की बसों के पकडे जाने पर तत्काल वैध दस्तावेजों की खेप तैयार कर दी जाती है। ऐसे में ईमानदार अधिकारी को परिवहन माफियों द्वारा फंसा दिया जाता है। उस पर अवैध वसूली के आरोप सहित अन्य मुकदमे लगाने की पहल शुरू हो जाती है। परिवहन माफियों की एक अन्तर्राज्यीय गिरोह के साथ कार्यपालिका के उत्तरदायी अधिकारियों का एक बडा कुनवा इस निजी लाभ कमाने के लिए निरंतर सक्रिय है। इन बस सेवाओं पर क्षमता से अधिक यात्री बैठाने, मनमाना किराया वसूलने, अभद्रता करने तथा संबंधित विभाग से शिकायत करने पर कोई कार्यवाही न होने जैसे आरोप हमेशा ही लगते रहते हैं परन्तु नक्कारखाने में तूती की आवाज सुनने वाला कोई नहीं है। इन बसों को टैक्स चोरी के माल को ढोने में भी इस्तेमाल किया जा रहा है। बसों में धरातल पर सीट या स्लीपर के दिखने वाले तल के नीचे दो छुपे हुए तल्ले बनाये जा रहे हैं जिनमें अन्दर की ओर अवैध माल तथा सामने की ओर यात्रियों का सामान रखा जाता है ताकि बाक्स खुलने पर सामने से अटैचियां, बैग ही दिखें। ऐसी बसों की छत पर भी प्रतिबंधित ऊंचाई से भी ऊपर तक माल भरा जा रहा है जो त्रिपाल से ढक दिया जाता है। यह सब महानगरों में उच्चतम अधिकारियों की आंखों के सामने खुलेआम चल रहा है। अधिकारी जानबूझकर मौन हैं, तंत्र औपचारिकताओं में कैद है और सांसें अपने संरक्षण के लिए जार-जार रो रहीं हैं। नागरिकों को सुविधायें देने वाले अपने पौ-बारह करने में जुटे हैं। परिवहन माफियों के साथ अधिकारियों की जुगलबंदी का परिणाम है जैसलमेर जैसी घटनायें। इस जुगलबंदी को तोडना ही होगा। जब तक वास्तविक ईमानदारी को पुरस्कार और स्वार्थपरिता में लिप्त लोगों खुलेआम दण्ड नहीं मिलेगा तब तक कानून की किताब वाली व्यवस्थाओं का व्यवहारिक होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हैं। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।