अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी की दिल्ली स्थित दूतावास में आयोजित प्रेस ब्रीफिंग में कोई महिला पत्रकार मौजूद नहीं थी। पत्रकारों को आमंत्रित करने वाले उत्तरदायी अधिकारियों पर महिला विरोधी मानसिकता वाली तालिबानी सोच को भारत पर थोपने के आरोप लगाये जा रहे हैं। इस तरह के पक्षपातपूर्ण रवैये को तकनीकी समस्या बताकर अफगानिस्तान के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने सफाई देने की कोशिश की। उनके अनुसार यह नीतिगत फैसला नहीं था बल्कि तकनीकी मुद्दा है जिसे भविष्य में ध्यान में रखा जायेगा। उल्लेखनीय है कि तालिबान पर लगातार महिलाओं के अधिकारों को कुचलने के आरोप लगाये जाते रहे हैं जिसका जीता जागता उदाहरण दिल्ली में आयोजित प्रेस ब्रीफिंग के दौरान देखने को मिला। इस घटना पर भारतीय विदेश मंत्रालय ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि दूतावास में होने वाली प्रेस ब्रीफिंग में उनकी कोई भूमिका नहीं थी, यह पूरी तरह से अफगानिस्तान की तरफ से आयोजित की गई थी। ऐसे में अमिर खान मुत्तकी का दौरा पूरा होने के पहले ही विवादास्पद बन गया। प्रेस ब्रीफिंग का मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गर्माते हुए ही उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबंद में हुए उनके दौरे के दौरान महिला पत्रकारों को प्रवेश तो दिया गया मगर उनके लिए तालिबानी शर्त लगा दी गई। दुनिया भर प्रसिद्ध इस्लामी शिक्षण संस्थान दारुल उलूम देवबंद में अमीर खान मुत्ताकी के दौरे के दौरान महिला पत्रकारों से कहा गया कि वे कार्यक्रम के दौरान परदा करके अलग स्थान पर बैठें। आयोजकों ने अपने इस कट्टरपंथी फरमान को परम्परागत व्यवस्था का हिस्सा बताया। ज्ञातव्य है कि इस संस्थान की स्थापना सन् 1866 में की गई थी। मुगुल साम्राज्य का पतन करके अंग्रेजों ने अपनी सत्ता स्थापित की थी। गोरों ने मुस्लिमों की कट्टरपंथी संस्थाओं को बंद करा दिया था। उग्रवादी मुसलमानों को सलाखों के पीछे भेज दिया गया था। विरोध करने वालों को फांसी की सजा तक दी गई थी। इसी मध्य इस्लाम का नारा बुलंद करके गजवा-ए-दुनिया का ख्वाब देखने वालों ने 30 मई 1866 को एक साथ मिलकर देवबंद में चोरी छुपे एक मजहबी मदरसे की स्थापना की जिसमें पढने वालों ने कालान्तर में अन्य भू भागों में जाकर कट्टरपंथ का इकबाल बुलंद किया। दारुल उलूम में तालीम लेने के लिए दुनिया भर से कट्टरपंथी मुस्लिम परिवारों के नवनिहाल आने लगे जिन्होंने अपनी पढाई पूरी करके अनेक देशों में ऐसे ही मदरसे स्थापित किये। यहीं के छात्र शेख अब्दुल हक ने सन् 1947 में पाकिस्तान के पेशावर से लगभग 55 किलोमीटर दूर अकोरा खटक में दारुल उलूम हक्कानिया की स्थापना। देवबंद के दारुल उलूम के सिद्धान्तों पर चलने वाले हक्कानिया मदरसों ने अफगानस्तान में कट्टरपंथियों को संरक्षण दिया और उनके अनेक प्रभावशाली युवाओं को अपने मदरसे के अलावा देवबंद भेजकर भी इस्लाम के कठोर संस्करणों में ढालने की पहल की। शेख अब्दुल हक की मौत के बाद उनके बेटे समी उल हक़ ने सन् 1988 में मदरसे की कमान संभाली। मदरसा अपने लक्ष्य की ओर तेजी से बढने लगा। कट्टरता का इकबाल बुलंद करने के लिए अनेक देशों से सहायता, सहयोग और सलाह मिलने लगी। तन, मन और धन की सम्पदा में बेतहाशा इजाफा होता चला गया। परिणामस्वरूप तालिबान नेताओं ने सन् 1990 के दशक में काबुल पर कब्ज़ा कर लिया था। एक अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्र के अनुसार सन् 2001 में अमेरिका ने अफगानस्तान में तालिबान सरकार को सत्ता से हटाने में मदद की तो इस कट्टरपंथी मदरसे और उसके संस्थापक ने आतंकवाद का सहारा लेकर अमेरिका समर्थित सरकार को खौफ के साये में जीने पर मजबूर कर दिया। यही कारण है कि समी उल हक़ को 'तालिबान का जनक' कहा जाता है। सन् 2018 में समी उल हक़ की हत्या के बाद उनके पुत्र हामिद उल हक़ ने मदरसों की कमान संभाली थी और देवबंद के सिद्धान्तों को फैलाने में जुट गये। इस अभियान को देवबंदी आन्दोलन का नाम देकर पूरे पहले दक्षिण एशिया और फिर समूची दुनिया में कट्टरपंथ का विस्तार दिया जाने लगा। विशेषकर पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर स्थापित अब्दुल हक़ ने दारुल उलूम हक्कानिया में अफगानस्तान के तालिबानियों को सत्ता हासिल करने के लिए खास तौर पर तैयार किया जाता रहा जिसमें देवबंद के उलेमाओं की सक्रिय भागीदारी दर्ज होती रही। ऐसे में अफगानस्तान की तालिबान सरकार के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी का यह देवबंद दौरा बेहद अहम हो जाता है जहां उन्होंने उलेमाओं के साथ-साथ दारुल उलूम के संचालकों के साथ बेहद गोपनीय चर्चायें भी की। यहां यह भी रेखांकित करना आवश्यक है कि सन् 2021 में अफगानस्तान की सत्ता में तालिबान की वापिसी के बाद अमीर खान मुत्तकी ने ही कार्यवाहक विदेश मंत्री की हैसियत से सन् 2023 के मई महीने में पाकिस्तान का भी दौरा किया था जिसे वहां की सरकार ने बेहद अहम करार दिया था। उस दौरान भी कट्टरता के अनेक उदाहरण समाने आये थे जिस पर अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया ने जमकर टिप्पणी की थी। वास्तविकता तो यह कि भारत के देवबंद स्थित दारुल उलूम और पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह वाले दारुल उलूम हक्कानिया में अफगानस्तान सहित दुनिया भर के अनेक कट्टरपंथी संगठनों के सदस्यों ने इस्लाम की बंदिशों को कठोरता से पालन करवाने के फार्मूले सीखे और उन्हें आतंक की दम पर लागू करवाने में जुट गये। संसार भर में इस्लाम के 72 फिरके हैं यानी इस्लाम को मानने की 72 पद्धतियां व्यवहार में हैं परन्तु कट्टरता के नाम पर सभी एक होकर गजवा-ए-दुनिया के ख्वाब को अपने-अपने ढंग से पूरा करने में लगे हुए हैं। वर्तमान हालातों में अफगानस्तान की सत्ता पर काबिज होने के बाद पहली बार अपनी छः दिवसीय यात्रा पर भारत पहुंचते ही तालिबान ने अपनी मंशा जाहिर कर दी है। उनका छुपा हुआ पैगाम संकेतों के रूप में सामने आ रहा है कि यदि हमसे संबंध रखना है तो हमारे साथ हमारे उसूलों पर ही हाथ मिलाना होगा, भले ही हमें अभी तक दुनिया ने पूरी तरह मान्यता नहीं दी हो, मगर हम कमजोर नहीं है। इस संकेत के कारण आज दुनिया भर में अफगानस्तान के तालिबानी विदेश मंत्री का भारत दौरा उनकी कट्टरता, महिलाओं पर पाबंदियों और देवबंद के कारण निरंतर सुर्खियों में बना हुआ है। अमीर खान मुत्ताकी के द्वारा परोसी गई कट्टरता की बानगी को भारतीय संस्कृतियों, संस्कारों और सौहार्द पर तालिबानी हमले के रूप में परिभाषित किया जाने लगा है। ऐसे में अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को एक बार फिर अफगानस्तान की तालबान सरकार के रवैये की गहन समीक्षा करके नवीन राय स्थापित करना होगी तभी हाथी के दांतों का अन्तर सामने आ सकेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नयी आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।